अंत भला तो सब भला
कई बार हमारे मन में प्रश्न उठता है कि हमने तो जो किया वो अपने समझ से संस्था के भले के लिये किया परन्तु फिर भी मेरे ऊपर शक किया जा रहा है उसी काम के लिये मुझे सजा दी जा रही है। मेरे मन में भी इस प्रश्न को लेकर बहुत ही परेशानी थी। मै भी इसका समाधान ढूंढ़ रहा था, कि अचानक मुझे महाभारत की एक कथा याद आ गयी। कथा कुछ इस तरह है।
भीष्म पितामह शर शैय्या पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि अपने शारीर का त्याग कर सकें। उन्हें अपने पिता से इच्छा मृत्यु का वरदान मिला हुआ था जिस कारण से वो अपने शारीर का त्याग अपनी इच्छा से कर सकते थे। उन दिनों युद्ध में भी मर्यादा का ध्यान रखा जाता था जिस कारण से सूर्यास्त के बाद प्रतिदिन युद्ध बन्द हो जाता था तथा पुनः अगले दिन सूर्योदय के बाद शुरू होता था।
प्रतिदिन संध्या समय युद्ध के समाप्ति के बाद पांडव और कौरव दोनों भीष्म पितामह से मिलने आते थे, उनका हाल-चाल पूछते थे। एक दिन शाम के समय पाण्डव, कौरव दोनों वासुदेव कृष्ण के साथ पितामह से मिलने गये। पितामह ने सबों को देखकर कहा कि वो अकेले में कृष्ण से कुछ बात करना चाहते हैं, इसलिए बाकी सभी कृष्ण को छोड़ कर चले जांए। उनके इतना कहने पर कृष्ण को छोड़ कर सभी लोग चले गये। सभी के चले जाने के बाद श्री कृष्ण और पितामह के बीच निम्नलिखित वार्तालाप हुई।
पितामह-वासुदेव, मुझे अपने पिता से इच्छा-मृत्यु का वरदान मिला हुआ है, मै जब भी चाहूँ मृत्यु को प्राप्त कर सकता हूँ। लेकिन मेरे मन में मरने की इच्छा ही नहीं जागृत हो रही है और मै इस शरशय्या पर कष्ट भोग रहा हूँ। मैंने अपने जीवन में कभी भी जाने-अनजाने भी किसी का कोई नुकसान नहीं किया है, किसी को भी कोई तकलीफ नहीं दी है, कोई पाप किया हो ऐसा भी स्मरण नहीं हो रहा है। फिर मै इतना कष्ट क्यों भोग रहा हूँ। यही प्रश्न कई दिनों से मेरे मन में आ रहा है। आप तो सर्व ज्ञानी है, आप मुझ पर कृपा करें तथा मुझे इसका कारण बताएं।
कृष्ण- पितामह, आपको तो पता ही है कि आप आठ वसु में से एक वसु है। (वसु स्वर्ग में होते है, वो पृथ्वी पर नहीं आते, लेकिन भीष्म पितामह पृथ्वी पर एक श्राप के कारण आये थे) आपका पुनर्जन्म नहीं है। इस पृथ्वी पर सभी जीवों का पुनर्जन्म होता है, इसलिये अगर किसी कारण से उनके कर्मो का फल अगर उन्हें इस जन्म में नहीं मिलता है, तो अगले जन्म में मिल जाता है। चूँकि आपका पुनर्जन्म नहीं है, इसलिये आपको अपना हिसाब-किताब इसी जन्म में बड़ाबड करके जाना है।
पितामह-जैसा की मैंने आपसे कहा है कि मुझे स्मरण नहीं है की मैंने कभी भी किसी का अहित किया हो, फिर मै यह कष्ट क्यों भोग रहा हूँ?
कृष्ण-पितामह शायद आपको स्मरण नहीं है, कि आप एक दिन हस्तिनापुर के राजमार्ग पर भ्रमण करने गये थे, यह उसी दिन की घटना है।
पितामह-प्रातः भ्रमण तो मै प्रतिदिन करता था, लेकिन मुझे इस विषय में कोई भी अस्वाभाविक बात याद नहीं आ रही है।
कृष्ण-एक दिन जब आप प्रातः भ्रमण कर रहे थे, तो एक रेंगने वाला कीड़ा हस्तिनापुर के राजमार्ग पर रेंगकर एक तरफ से दूसरे तरफ जाने का प्रयास कर रहा था। आपने उसे अपनी छड़ी के दूसरे सिरे से उठाकर राजमार्ग के दूसरे तरफ फ़ेंक दिया था।
पितामह-यह तो मैंने उसका भला किया था, हस्तिनापुर राजमार्ग बहुत ही व्यस्त रहता है, उस पर सैनिक, हाथी, घोड़े, रथ इत्यादि आते-जाते रहते हैं। मैंने सोचा कि वह या तो किसी के पैरों के नीचे आ जायेगा या उसे रथ इत्यादि के पहिये कुचल देंगे और वो मर जायेगा। इसमें मेरी क्या गलती थी।
कृष्ण-यह आप सोचते हैं, की आपने उसका भला किया था, लेकिन आपने उसे फेंकने के बाद देखा नहीं कि वह कीड़ा गिरा कहाँ। वह कीड़ा एक काँटों की झाड़ी पर उल्टा पीठ के बल गिर गया और उसके पीठ में कांटे चुभ गये। वह बाहर निकलने के लिये जितना ही छटपटाता उतना ही और कांटे चुभ जाते। आखिर वहीँ उसकी मृत्यु हो गयी। और वह मरते-मरते आपको श्राप दे गया। वह कह रहा था कि मै तो चुपचाप अपने रास्ते जा रहा था, पता नहीं इस व्यक्ति को क्या सूझी कि इसने मुझे जमीन से उठा कर काँटों की झाड़ी पर पटक दिया। इश्वर करे इसकी मृत्यु भी ऐसे ही इतने ही कष्टों से हो। इसलिये आप यह कष्ट भोग रहे हैं।
यह सुनकर पितामह चुप हो गये।
सिर्फ अपने आप यह सोच लेना कि मैंने जो काम किया वह किसी के भले के लिये किया, काफी नहीं है, यह भी सुनिश्चित करना चाहिये की उसका परिणाम भी भला हो।
प्रतिदिन संध्या समय युद्ध के समाप्ति के बाद पांडव और कौरव दोनों भीष्म पितामह से मिलने आते थे, उनका हाल-चाल पूछते थे। एक दिन शाम के समय पाण्डव, कौरव दोनों वासुदेव कृष्ण के साथ पितामह से मिलने गये। पितामह ने सबों को देखकर कहा कि वो अकेले में कृष्ण से कुछ बात करना चाहते हैं, इसलिए बाकी सभी कृष्ण को छोड़ कर चले जांए। उनके इतना कहने पर कृष्ण को छोड़ कर सभी लोग चले गये। सभी के चले जाने के बाद श्री कृष्ण और पितामह के बीच निम्नलिखित वार्तालाप हुई।
पितामह-वासुदेव, मुझे अपने पिता से इच्छा-मृत्यु का वरदान मिला हुआ है, मै जब भी चाहूँ मृत्यु को प्राप्त कर सकता हूँ। लेकिन मेरे मन में मरने की इच्छा ही नहीं जागृत हो रही है और मै इस शरशय्या पर कष्ट भोग रहा हूँ। मैंने अपने जीवन में कभी भी जाने-अनजाने भी किसी का कोई नुकसान नहीं किया है, किसी को भी कोई तकलीफ नहीं दी है, कोई पाप किया हो ऐसा भी स्मरण नहीं हो रहा है। फिर मै इतना कष्ट क्यों भोग रहा हूँ। यही प्रश्न कई दिनों से मेरे मन में आ रहा है। आप तो सर्व ज्ञानी है, आप मुझ पर कृपा करें तथा मुझे इसका कारण बताएं।
कृष्ण- पितामह, आपको तो पता ही है कि आप आठ वसु में से एक वसु है। (वसु स्वर्ग में होते है, वो पृथ्वी पर नहीं आते, लेकिन भीष्म पितामह पृथ्वी पर एक श्राप के कारण आये थे) आपका पुनर्जन्म नहीं है। इस पृथ्वी पर सभी जीवों का पुनर्जन्म होता है, इसलिये अगर किसी कारण से उनके कर्मो का फल अगर उन्हें इस जन्म में नहीं मिलता है, तो अगले जन्म में मिल जाता है। चूँकि आपका पुनर्जन्म नहीं है, इसलिये आपको अपना हिसाब-किताब इसी जन्म में बड़ाबड करके जाना है।
पितामह-जैसा की मैंने आपसे कहा है कि मुझे स्मरण नहीं है की मैंने कभी भी किसी का अहित किया हो, फिर मै यह कष्ट क्यों भोग रहा हूँ?
कृष्ण-पितामह शायद आपको स्मरण नहीं है, कि आप एक दिन हस्तिनापुर के राजमार्ग पर भ्रमण करने गये थे, यह उसी दिन की घटना है।
पितामह-प्रातः भ्रमण तो मै प्रतिदिन करता था, लेकिन मुझे इस विषय में कोई भी अस्वाभाविक बात याद नहीं आ रही है।
कृष्ण-एक दिन जब आप प्रातः भ्रमण कर रहे थे, तो एक रेंगने वाला कीड़ा हस्तिनापुर के राजमार्ग पर रेंगकर एक तरफ से दूसरे तरफ जाने का प्रयास कर रहा था। आपने उसे अपनी छड़ी के दूसरे सिरे से उठाकर राजमार्ग के दूसरे तरफ फ़ेंक दिया था।
पितामह-यह तो मैंने उसका भला किया था, हस्तिनापुर राजमार्ग बहुत ही व्यस्त रहता है, उस पर सैनिक, हाथी, घोड़े, रथ इत्यादि आते-जाते रहते हैं। मैंने सोचा कि वह या तो किसी के पैरों के नीचे आ जायेगा या उसे रथ इत्यादि के पहिये कुचल देंगे और वो मर जायेगा। इसमें मेरी क्या गलती थी।
कृष्ण-यह आप सोचते हैं, की आपने उसका भला किया था, लेकिन आपने उसे फेंकने के बाद देखा नहीं कि वह कीड़ा गिरा कहाँ। वह कीड़ा एक काँटों की झाड़ी पर उल्टा पीठ के बल गिर गया और उसके पीठ में कांटे चुभ गये। वह बाहर निकलने के लिये जितना ही छटपटाता उतना ही और कांटे चुभ जाते। आखिर वहीँ उसकी मृत्यु हो गयी। और वह मरते-मरते आपको श्राप दे गया। वह कह रहा था कि मै तो चुपचाप अपने रास्ते जा रहा था, पता नहीं इस व्यक्ति को क्या सूझी कि इसने मुझे जमीन से उठा कर काँटों की झाड़ी पर पटक दिया। इश्वर करे इसकी मृत्यु भी ऐसे ही इतने ही कष्टों से हो। इसलिये आप यह कष्ट भोग रहे हैं।
यह सुनकर पितामह चुप हो गये।
सिर्फ अपने आप यह सोच लेना कि मैंने जो काम किया वह किसी के भले के लिये किया, काफी नहीं है, यह भी सुनिश्चित करना चाहिये की उसका परिणाम भी भला हो।
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